गटरेश्वर ( लघुकथा )
पाड़े जी के घर के सामने से बहती बजबजाती दुर्गन्धयुक्त नाली और उसमें घुसा एक राक्षस कद का आदमी! घर के भीतर से आती एक तीखी आवाज़-
"राम!"
"राम!"
"राम!"
"का सभई धरम नाले में घोरकर पी गये हो पाड़े जी!"
"अरे ज़रा समाज का तो ख़याल कर लिया होता।"
"अब क्या अपनी जूती सर पर रखोगे!"
"अब क्या अपनी जूती सर पर रखोगे!"
गंभीर व्यंग्य करती हुई चिकनी पड़ाइन पाड़े जी को दो टूक सुनाती है।
"का हरज है!"
"ख़ाली गिलास से पानी ही तो पीया रहा चमनवा जमादार।"
"बड़ी प्यास लगी रही बेचारे को।"
"सुबह से तुम्हारा संडास साफ़ कर रहा है।"
"आख़िर ऊ भी तो इंसान है!"
कहते हुए पाड़े जी चिकनी पड़ाइन के दरबार में अपनी बात बड़ी ही मज़बूती के साथ रखते हैं।
"इतनी ही इंसानियत तुम्हरे दिल में हिलोरे मार रही है तो उस कलमुँहे को अपना दामाद क्यों नहीं बना लेते!"
"और आगी में डाल दो अपने सारे धर्म-शास्त्र और वेद-पुराणों की सीख!"
"और बंद करो ये जाति-प्रथा!"
"दिखा दो अपनी फटी जाँघिया इस नये ज़माने को!"
"दिखा दो अपनी फटी जाँघिया इस नये ज़माने को!"
"अब बोलो!"
"बोलते काहे नहीं!"
"मुँह काहे बंद हो गया?"
"अब नहीं दिखता क्या चमनवा जमादार में नाली का ईश्वर!"
चिकनी पड़ाइन के इस कोरे तर्क के सामने पाड़े जी अपना शस्त्र डालकर उसका बेढंगा मुँह ताकने लगे। उधर इन दोनों पति-पत्नी की बातें सुनकर चमनवा जमादार गटर की नाली से अपना कीचड़ से सना मुँह निकाल खिखियाकर हँसने लगा।
चमनवा जमादार पाड़े जी की हालत देखकर मानो कह रहा हो कि-
"पाड़े जी अपनी सुधारवादी बातें अपने थैले में ही रखिए नहीं तो पूरी सृष्टि ही उलट पड़ेगी।"
'एकलव्य'
चलो अच्छा है ! कम से कम प्रेमचन्द की कहानी - 'ठाकुर का कुआँ' के दलित पात्रों की तरह चमंनवा जमादार को प्यास बुझाने के लिए मुर्दा-जानवर से प्रदूषित पानी तो नहीं पीना पड़ा. लगता है कि अच्छे दिन आ गए हैं.
ReplyDeleteप्रिय ध्रुव , एक जाति विशेष पर समस्त समाज की सफाई का बोझ और उस पर भी ये दुराग्रह , सदियों से हमारे कथित जातिप्रधान समाज का घिनौना सत्य रहा है | बहुत बड़ी विडम्बना है उन्हीं से अपनी गंदगी साफ करवाना और उन्हें ही हेय दृष्टि से देखना!!!!! बकौल गाँधी जी छुआछात मानवता के प्रति बहुत बड़ा अपराध है | उस पर अधिक मर्मान्तक स्थिति ये है कि चमन जमादार सरीखे लोग अपना आत्मसम्मान गिरवी रख के इस तिरस्कार में भी मुस्कुराते रहते हैं|पर धीरे -धीरे सामाजिक सोच में बदलाव भी हो रहा है , जैसा कि आदरणीय गोपेश जी ने लिखा ठाकुर का कुआँ जैसी स्थिति से कुछ तो उबरा हैं शोषित वर्ग | सार्थक कथा के लिए शुभकामनाएं|
ReplyDeleteक्रांतिकारी लेखन शाब्दिक मर्यादा के साथ हो तो उत्तम होता है। भारत में सामाजिक ढाँचे की स्थिति कुछ इस प्रकार की है कि जैसे हम किसी बच्चे को आम को इमली बताएं और बच्चा पूरी निश्चलता से उसी को आत्मसात कर ले और बड़ा होकर उसी ज्ञान के साथ समाज में अपनी जगह बनाता हुआ विदेश पढ़ने जाय और वहाँ उसे ध्यान में लाया जाय कि आप बचपन से ग़लत शिक्षा को अपना ज्ञान मान रहे हो तब यह उस व्यक्ति के विवेक पर निर्भर है कि ऐसी परिस्थिति में उसे विद्रोह करना है अथवा उसी ज्ञान के साथ आगे की चुनौतियों का सामना करना है।
ReplyDeleteअपने हिंदी भाषा को आज एक नया शब्द 'गटरेश्वर' उपलब्ध कराया है। हास्य के लिये अँग्रेज़ी-हिंदी शब्दों का मिश्रण मान्य है किंतु इसे परिभाषित करना दुरूह कार्य है।
सुप्रसिद्ध आलोचक स्वर्गीय डॉ. नामवर सिंह जी के शब्दों में-
"दुख रोने से कम नहीं होता, कम होता है उसका कारण समझने से। रात अँधेरे में हाथ पीटने से नहीं कटती, रात कटती है दीया जलाने से। यह तय है कि दीया जलाने से सुबह के दर्शन नहीं हो जाते, लेकिन एक ढाढ़स अवश्य बँधता है।"
लेखन में एकला चलो की परिपाटी अब त्याज्य है अतः सामूहिक हितों की रक्षार्थ हम विनम्र भाव से सामाजिक विसमता के कारण और जड़ों को सूक्ष्मता से समझनी होती हैं और फिर क़लम को अपना कार्य करने देना चाहिए जो पीड़ित पक्ष को राहत देती नज़र आये।
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार (21-02-2020) को "मन का मैल मिटाओ"(चर्चा अंक -3618) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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अनीता लागुरी"अनु"
आपकी कलम चांद शब्दों में समाज के बड़े बड़े समस्याओं को उकेर देती हैं ,सादर नमन हैं आपको
ReplyDeleteये लघुकथा निःसंदेह पुरस्कृत की जाने की हकदार हैं।
"इतनी ही इंसानियत तुम्हरे दिल में हिलोरे मार रही है तो उस कलमुँहे को अपना दामाद क्यों नहीं बना लेते!"
ReplyDeleteलाजवाब सृजन....
अब नहीं दिखता क्या चमनवा जमादार में नाली का ईश्वर!"
जातिवाद के घिनौने सच को बयां करती ....
वाह!!!
आदरणीय सर सादर प्रणाम 🙏
ReplyDelete....फिर एक परिवर्तन के प्रयास में आपकी धारदार कलम चल ही गयी। फिर आपने सुधारवादी सोच लिए पाड़े जी की वास्तविकता को उठाकर सामने रख दिया। विडंबना देखिए आज सुधार कि,भेद - भाव,छुआछूत ना मानने की बातें तो लगभग 80% लोगों की ज़बान पर है किंतु अंतर में आज भी वही दूषित मानसिकता विद्यमान है। हाँ जैसा की आदरणीय गोपेश सर जी ने कहा कि अब ठाकुर का कुआँ जैसी पारिस्थिति नही है पर हम यह भी ना कहेंगे कि पारिस्थिति में कुछ बेहतर है। क्योंकि शोषण कहीं कम नही हुआ बस रूप बादल गया है। थोड़ा और समय दीजिए तो अपने नए रूप में सबको दिखने भी लगेगा। तब समस्या थी पानी अब शायद रोटी हो। जो मानसिकता में सुधार आज दिख रहा है वो तो मात्र छलावा है। नारायण ना करें किंतु हालात यही कह रहे कि 'ठाकुर का कुआँ ' से बदतर समय आने को है..... आज स्वागत में दीवार खड़ी की गयी है कल जाने क्या हो?
क्षमा करिएगा सर प्रतिक्रिया भेजने में देर हुई। चर्चा मंच पर आपकी टिप्पणी से पता चला कि आपकी ये लघुकथा पुरस्कार हेतु नामित हुई है। होनी भी चाहिये.... आपकी लघुकथाएँ वास्तविकता को जिस कदर सामने लाकर रखती हैं हर झूठ हर छल का पर्दाफाश हो जाता है। इस उपलब्धि और इस धारदार लघुकथा हेतु हमारी ओर से आपको हार्दिक बधाई और ढेर सारी शुभकामनाएँ। सादर प्रणाम 🙏 सुप्रभात।
..... और हिंदी साहित्य को जो आपने एक बड़ा ही अद्भुत शब्द दिया ' गटरेश्वर ' इसके लिए तो साहित्य जगत आपका आभारी है। इस शब्द कि महिमा यही है कि ये शब्द अकेला पर्याप्त है लोगों की मैली मानसिकता को स्वच्छ बनाने हेतु। पुनः हार्दिक बधाई सादर प्रणाम 🙏
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ReplyDeleteबहुत सुंदर
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