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Friday, 31 January 2020

लड़खड़ाती वफ़ादारी ( लघुकथा )





लड़खड़ाती वफ़ादारी ( लघुकथा )



                  रात्रि का पहर! झुमरू ज़मींदार साहब की चौखट पर मुँह बाये घंटों से खड़ा था। बीच-बीच में थोड़ा सुस्ताने हेतु गोल-गोल घूमकर पूँछ हिलाते हुए बैठ जाया करता और कभी-कभी भीतर से आती आवाज़ को सुनकर चौकन्ना हो एक चुस्त-दुरुस्त चौकीदार की भाँति खड़ा हो जाता। दो बरस पहले झुमरू की माँ उसे जन्म देते वक़्त यहीं ज़मींदार की गौशाला में ही गुज़र गयी।  तब से झुमरू ज़मींदार साहब के टुकड़ों पर पल रहा है और अपनी वफ़ादारी निभाता चला आ रहा है।

"क्या हुआ?"
"अरे खाना तो पूरा खा लेते!"
"भोजन पर काहे ग़ुस्सा उतार रहे हो?"
"अरे, ऊ छितना की घरवाली गवाही दे दीस कोरट मा तो का हो गवा!"
"अभी सज़ा तो न हुई ना तुमका!"
"भेज दो, दो-चार लठैत रात मा!"
"सारी हेकड़ी निकल जाएगी उस छितना की मेहरिया की, दो मिनट में!"

ठकुराइन अपने ज़मींदार पति राणा जी को सलाह देती हुई समझाती है।

"अरे, का बतायें!"
"लाख समझाया था उन ससुरों को!"
"मुँह तोप के हमला करना!"
"और केवल धमकाना ऊ छितना को!"
"मुझे का पता था कि ई ससुर भीमा और बजरंगिया उसे जान से ही मार देंगे!"
"औरो उसके घरवाली के ही सामने!"

कहते हुए राणा जी हाथ में तम्बाकू मलते-मलते चूने के गर्दे को दोनों हाथों से ठोककर हवा में उड़ाते हैं।

"अरे जी!"
"तुम नाहक़ ही चिंता करते हो।"
"घर में दस-ठो कुत्तों को किस दिन के लिये पाल रखा है?"
"छोड़ देना आज रात उसकी घरवाली पर।"
"सारी अक़्ल ठिकाने आ जायेगी!"
अपनी ज़मींदारी का रौब झाड़ती हुई ठकुराइन पलँग से उठकर खड़ी हो जाती है, और भीतर से ही अपने नौकर बजरंगी को आवाज़ लगाने लगती है।

ठकुराइन की गरजती हुई आवाज़ सुनकर झुमरू चौकन्ना होकर खड़ा हो जाता है और बेतहाशा भौंकने लगता है, मानो कह रहा हो-
"मालिक आप यह अन्याय करने जा रहे हैं, छितना के परिवार के साथ!"
"और मैं यह घोर अन्याय बिल्कुल नहीं होने दूँगा।"
तभी झुमरू की पीठ पर एक ज़ोर की लाठी उसके सम्पूर्ण क्रांतिकारी विचारों को एक करुणाभरी चीख़ में परिवर्तित कर देती है!

"अरे का हुआ!"
"कउन है रे!"
ठकुराइन भीतर से ही आवाज़ लगाती हुई पूछती है।

"अरे मालकिन हम हैं।"
"बजरंगिया!"
"ई ससुर तोहार कुकुरा झुमरूआ  बौरा-बौराकर हम पर भौंके जा रहा था।"
"दिया दुइ लाठी ससुर को!"

"अरे काहे भगा दिया उसे?"
"रोटी ख़ातिर खड़ा रहा होगा!"
"उसके रोज़ का टेम हो गया था ना!"

कहती हुई ठकुराइन पलँग पर अपने दोनों पाँव पसारकर अपना पानवाला ख़ानदानी संदूक खोलने लगती है।      


'एकलव्य' 
कोरट =न्यायालय/कोर्ट/अदालत
मेहरिया =पत्नी 
टेम = समय/टाइम  
कुकुरा =कुत्ता         
                     

Monday, 27 January 2020

अम्मा गिर गई! ( लघुकथा )






अम्मा गिर गई! ( लघुकथा ) 



रोज़-रोज़ की किच-किच! मैं तो थक गया हूँ इस घर से, कहते हुए वक़ील साहब कचहरी जाने के लिए तैयार होते हुए।
लाजवंती मुँह फुलाए वक़ील साहब को उलाहना देती हुई।

लाजवंती-
"हाँ जी!"
"मैं ही सबसे बुरी हूँ!"
"बाक़ी सभी दूध के धुले हैं!"

कहते-कहते रोने लगती है।
"पहले इस आदमी ( वक़ील साहब की ओर इशारा करती हुई ) से कभी कोई सुख नहीं मिला!"
"और अब ये नई बहुरिया के अपने ही ठाट-बाट!"
"जब देखो तब महारानी एलिज़ाबेथ, टाँग पसारे चारपाई तोड़ती रहती है!"
"और मैं मुई"
"इस कड़कड़ाती ठंड में घर का झाड़ू-पौंछा कर-करके मरी जा रही हूँ!"
"और मेरा सुपुत्र रामखेलावन अपने ही खेला में दिन-दोगुनी,रात पॉँच गुनी करने में मस्त है!"
"मेरे तो भाग ही फूट गए!"
"अरे किरीतिया!"
"कब ठीक होगी रे तू?"

         वक़ील साहब की बहुरिया 'किरीतिया' चार दिन से मलेरिया के बुख़ार से पीड़ित थी, नहीं तो घर का सारा काम-धाम उसी के सर पर फूटता था।
जबसे किरीतिया खटिया पर पड़ी है, लाजवंती के मुँह पर बारह ही बजे रहते हैं, और काम कम उसका सारा समय किरीतिया को ताने देने में ही गुज़र जाता है।

          खैर, किसी तरह रोज़ के चूल्हा-चौके का काम निपटाकर लाजवंती सीढ़ियों से उतर रही थी कि उसका पाँव फिसल गया!
भारी ढुलमुल शरीर होने की वज़ह से वह स्वयं को संभाल न सकी और कई करवटें लेती हुई प्रारम्भ से अंतिम सीढ़ी के फ़र्श पर आ पसरी, और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाना शुरु कर दिया!

                              वक़ील साहब लाजवंती के इस करुण पुकार को सुनकर उल्टे पाँव दौड़े, और उधर किरीतिया बुख़ार होते हुए भी जैसे-तैसे लाजवंती को उठाने पहुँच गयी!
किसी तरह मिल-मिलाकर दोनों ने लाजवंती को उसके बिस्तर तक पहुँचाया।

       लाजवंती को दिन में ही चाँद-तारों के दर्शन होने लगे थे! किरीतिया लाजवंती के सर पर अपना हाथ फेरने लगी जो बुख़ार होने की वज़ह से अत्यंत गर्म था!

किरीतिया- माँ जी!
"अब कैसी तबीयत है?"
लाजवंती से कहती हुई।

         परन्तु लाजवंती दर्द के कारण बोलने में अक्षम थी सो धीरे से अपनी पलकें झपका दी। संभवतः लाजवंती के हड्डी में चोट लगी थी यह भाँपते हुए किरीतिया शीघ्र ही रसोईंघर की ओर भागी और हल्दीवाला दूध बनाकर ले आयी, और लाजवंती को इसे पीने के लिए कहने लगी। परन्तु आज लाजवंती को अपने किये गए कर्मों पर पछतावा हो रहा था।
मौन ही वह किरीतिया को देखे जा रही थी और पश्चाताप के अश्रु उसकी आँखों से स्वतः ही गतिमान थे! 

           
                   

'एकलव्य' 

Sunday, 19 January 2020

नौटंकी ( लघुकथा )







    नौटंकी ( लघुकथा )

वाराणसी शहर अपने अल्हड़-मस्ती और मस्तानों की एक से बढ़कर एक टोली हेतु मशहूर, और बात करें लंका स्थित पनवड़िया बनारसी पानवाले के पान की दुकान की तो क्या बात ! 

          संसद में जितने सत्र होते हैं वर्ष में, उसमें सभी माननीय उपस्थित हों यह आवश्यक नहीं परन्तु पनवड़िया बनारसी के पान की दुकान पर वर्षभर सत्र का आयोजन कोई आम बात नहीं और वो भी शहरभर के धुरंधर ज्ञानी 'मनई' का जमावड़ा! 
पनवड़िया बनारसी और उसकी दुकान में ज़ोर-ज़ोर से बजता सुपरहिट भोजपुरी चलचित्रों का मनलुभावन देशी अपनत्व और कुछ पाश्चात्य की अश्लीलता से सराबोर पॉप टाइप आधुनिक संगीत! 

सुबह का समय, पंडित फुदकूराम जी का आगमन -
पंडित फुदकू राम बड़े ही रौब से ऐंठते हुए-
"अरे बनारसी!"
"थोड़ा चकाचक पान तो लगा!"
पनवड़िया बनारसी पान लगाने में मस्त।
"अरे पंडित जी प्रणाम!"
"का हाल-चाल बा ?"
 उधर से विद्याधर द्विवेदी बड़ी ही शालीनता से बोले। 

पंडित फुदकूराम नाक-भौं सिकोड़ते हुए प्रतिउत्तर में अपने पान के दागों से रंगे दाँत विद्याधर द्विवेदी को दिखा दिये!
विद्याधर द्विवेदी बड़े ही चुटीले अंदाज में-
"पंडित जी कछु सुना ?"

पंडित फुदकूराम  तनिक ऐंठते हुए-
"सुन ही तो रहे हैं!"
"अउर का मूँगफली थोड़े न तोड़ रहे हैं!"
विद्याधर द्विवेदी, पंडित फुदकूराम के इस व्यंग्यात्मक प्रतिक्रिया से अपनेआप को थोड़ा असहज महसूस करने लगे।
पंडित फुदकूराम थोड़ा नरम पड़ते हुए-
"अब नया का हो गवा ?"

विद्याधर द्विवेदी उत्सुकतापूर्वक-
"अरे!"
"सबरीमला का कांड सुने की नाही ?"

पंडित फुदकूराम कुंठाभरी प्रतिक्रिया देते हुए-
"औरो का सुने!"
"घर-बार के कांड से फुर्सत मिले तब ना!"
"ख़ैर छोड़िए!"
"क्या रखा है देश-दुनिया की ख़बरों में ?"
"यहाँ तो कुलहिन भ्रष्टाचारी हैं!"
"केके देखें ?"
"कउनो कुछ कहते भी नहीं!"
"सभी के मुँह जो सिले हैं!"

"अबही हाल ही की एक घटना ले लीजिए!"
"गाँव में शौचालय बनाने का पैसा ब्लॉक का प्रमुख अउर ग्रामप्रधान दोनों सठगठिया भाई मिलकर गपत कर गये!"
"सरकारी कागज़ में शौचालय निर्मित!"
"अउरो ससुर धरती पर नदारद!"
"अउर तो अउर सड़क पर पुलिसवालों की दादागीरी अलगे चल रही है!"

"भारी वाहनों के प्रवेश हेतु वर्जित सड़क पर हमारे रक्षक खाली बीस-ठो रुपल्ली खातिर रात में भारी सामान से भरे ट्रकों को बिना किसी रोक-टोक के आने-जाने की सहर्ष अनुमति प्रदान करते हैं!"
"अउर का देखें ?"
"सभी तो देख ही रहे हैं परन्तु सभी ने बाबा विश्वनाथ की कछु न बोलने की कसम ले रखी है!"

      तभी सड़क के दूसरी ओर से ज़ोर-ज़ोर किसी के रोने-गिड़गिड़ाने की आवाज़ सुनाई पड़ने लगी!
पनवड़िया बनारसी के दुकान पर खड़े सभी सज्जन उस चलचित्र को देख रहे थे जहाँ एक ग़रीब रिक्शावाला यह कहते हुए अपने प्राणों की भीख माँग रहा था कि,

"साहब हमसे गलती हो गई!"
"रिक्शे का चेन उतर गया था इसलिए रिक्शा सड़क के किनारे लगाने में तनिक देर हो गई!"

परन्तु रिक्शेवाले की ये खोखली दलीलें उस ईमानदार पुलिसवाले के समक्ष बौनी साबित हो रही थीं, और क़ानून  के समुचित पालन हेतु वह लगातार उस ग़रीब रिक्शेवाले के ऊपर लाठियों की बौछार करता चला जा रहा था। 

        पनवड़िया बनारसी के सभी गणमान्य ग्राहक मूकदर्शक बने यह नाटक बड़ी ही ईमानदारी और तन्मयता के साथ देख रहे थे! तभी पंडित फुदकूराम यह कहते हुए वहाँ से निकल लिए कि,
"बड़ी देर हो रही है!"
"इस नौटंकी का प्रसारण कोई खास बात नहीं!"   



लेखक : ध्रुव सिंह 'एकलव्य'
    

Tuesday, 14 January 2020

मटमैला पानी ( लघुकथा )



मटमैला पानी ( लघुकथा



"रे सुना है, ऊ कलुआ पंचर वाले ने भी प्रधानी के चुनाव हेतु पर्चा भरा है!"
ठहाका मारके हँसते हुए छगन मिसिर।
रामसजीवन,
"अरे!"
"यह बात तो हमने भी सुनी है!"
छगन मिसिर,
"हाँ..!"
"ठीक ही है!"
"पंचर बनाते-बनाते कहीं गाँव की इज़्ज़त पर ही न पंचर चिपका दे!"

रामसजीवन,
"राम... !"
"राम ...!"
"राम...!"
"अब पंचर वाले भी हमार गाँव चलाने को तैयार हैं!"
"घनघोर कलयुग!"
तभी चमन डाकिया अपनी साईकिल की घंटी बजाता हुआ उन धनाढ्यों की चौपाल पर अपनी हाज़िरी लगाने पहुँचता है जहाँ सभी अलाव के चारों ओर बैठकर सर्दी का भरपूर आनंद ले रहे थे।

छगन मिसिर,
"का हो चमन!"
"कइसे हो ?"
चमन,
"सब ठीक है पंडित जी!"
छगन मिसिर व्यंग्य कसते हुए, 
"आजकल हमरी चौपाल पर तुम्हरा आना-जाना बड़ा कम हो गया है!"
"का सारी चिट्ठी-पाती उहे कलुआ पंचरवाले की झोपड़िया में गिरावत हो का!"

चमन डाकिया,
"अरे नाही पंडित जी!"
"का बात करत हो!"
बात को टालते हुए चमन डाकिया वहाँ से चला जाता है। जल्द ही चमन की साईकिल सड़क के किनारे एक उजाड़-सी मड़ई, ( जहाँ ट्यूब के कुछ टुकड़े, लोहे के गोलाकार बर्तन में भरा मटमैला पानी और पास में ही रखा जंग लगा हवा भरने वाला पम्प जो मड़ई के घास-फूस की दीवार के सहारे टिकाकर रखा गया था।
मड़ई की छत से कुछ पुराने टायर लटक रहे थे मानो किसी साईकिल के पहिए में लगने से पहले ही अपने अंतिम अवस्था की बची चंद घड़ियाँ गिन रहे हों! ) के पास आकर रुकी।

मटमैले लोहे के बर्तन में रखे पानी में एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति ट्यूब के एक सिरे से दूसरे सिरे को बार-बार डुबोता और हवा के आवागमन को परखता।
छेद का अनुभव होने पर ट्यूब के उस स्थान को पास ही ज़मीन पर पड़े लकड़ी के टुकड़ों को छेद में घुसेड़ते हुए उन्हें चिन्हित करता।

चमन डाकिया,
"का हो कल्लु!"
"कैसे हो ?"
कल्लु,
"सब ठीक बा डाकिया बाबू!"
चमन डाकिया,
"तुम्हरे चुनाव की तैयारी कैसी चल रही है ?"
कल्लु,
"बस चल रहा है डाकिया बाबू!"
कहते हुए कल्लु मड़ई के एक कोने में रखा लकड़ी का स्टूल चमन के लिए बाहर ले आता है और चमन से बैठने का निवेदन करता है, और स्वयं पुनः जाकर पानी में डूबे हुए ट्यूब को पुनः उलटने-पलटने लगता है।

चमन डाकिया,
"अउर!"
"तोहार चुनाव की तैयारी के लिए कउनो पम्पलेट-वम्पलेट छपवाया ?"

कलुआ एक पल को शांत हो जाता है और उसकी निगाहें संभवतः अपनेआप को उसी बर्तन में रखे मटमैले पानी में तलाशतीं  नज़र आती हैं।


लेखक - ध्रुव सिंह 'एकलव्य'





खोखली पंचायत ( लघुकथा )

खोखली पंचायत ( लघुकथा )  "अ रे ए होरी!" "तनिक एक मस्त चाय तो बना!" "ससुर ई मच्छर!" "रातभर कछुआ...