लड़खड़ाती वफ़ादारी ( लघुकथा )
रात्रि का पहर! झुमरू ज़मींदार साहब की चौखट पर मुँह बाये घंटों से खड़ा था। बीच-बीच में थोड़ा सुस्ताने हेतु गोल-गोल घूमकर पूँछ हिलाते हुए बैठ जाया करता और कभी-कभी भीतर से आती आवाज़ को सुनकर चौकन्ना हो एक चुस्त-दुरुस्त चौकीदार की भाँति खड़ा हो जाता। दो बरस पहले झुमरू की माँ उसे जन्म देते वक़्त यहीं ज़मींदार की गौशाला में ही गुज़र गयी। तब से झुमरू ज़मींदार साहब के टुकड़ों पर पल रहा है और अपनी वफ़ादारी निभाता चला आ रहा है।
"क्या हुआ?"
"अरे खाना तो पूरा खा लेते!"
"भोजन पर काहे ग़ुस्सा उतार रहे हो?"
"अरे, ऊ छितना की घरवाली गवाही दे दीस कोरट मा तो का हो गवा!"
"अभी सज़ा तो न हुई ना तुमका!"
"भेज दो, दो-चार लठैत रात मा!"
"सारी हेकड़ी निकल जाएगी उस छितना की मेहरिया की, दो मिनट में!"
ठकुराइन अपने ज़मींदार पति राणा जी को सलाह देती हुई समझाती है।
"अरे, का बतायें!"
"लाख समझाया था उन ससुरों को!"
"मुँह तोप के हमला करना!"
"और केवल धमकाना ऊ छितना को!"
"मुझे का पता था कि ई ससुर भीमा और बजरंगिया उसे जान से ही मार देंगे!"
"औरो उसके घरवाली के ही सामने!"
कहते हुए राणा जी हाथ में तम्बाकू मलते-मलते चूने के गर्दे को दोनों हाथों से ठोककर हवा में उड़ाते हैं।
"अरे जी!"
"तुम नाहक़ ही चिंता करते हो।"
"घर में दस-ठो कुत्तों को किस दिन के लिये पाल रखा है?"
"छोड़ देना आज रात उसकी घरवाली पर।"
"सारी अक़्ल ठिकाने आ जायेगी!"
अपनी ज़मींदारी का रौब झाड़ती हुई ठकुराइन पलँग से उठकर खड़ी हो जाती है, और भीतर से ही अपने नौकर बजरंगी को आवाज़ लगाने लगती है।
ठकुराइन की गरजती हुई आवाज़ सुनकर झुमरू चौकन्ना होकर खड़ा हो जाता है और बेतहाशा भौंकने लगता है, मानो कह रहा हो-
"मालिक आप यह अन्याय करने जा रहे हैं, छितना के परिवार के साथ!"
"और मैं यह घोर अन्याय बिल्कुल नहीं होने दूँगा।"
तभी झुमरू की पीठ पर एक ज़ोर की लाठी उसके सम्पूर्ण क्रांतिकारी विचारों को एक करुणाभरी चीख़ में परिवर्तित कर देती है!
"अरे का हुआ!"
"कउन है रे!"
ठकुराइन भीतर से ही आवाज़ लगाती हुई पूछती है।
"अरे मालकिन हम हैं।"
"बजरंगिया!"
"ई ससुर तोहार कुकुरा झुमरूआ बौरा-बौराकर हम पर भौंके जा रहा था।"
"दिया दुइ लाठी ससुर को!"
"अरे काहे भगा दिया उसे?"
"रोटी ख़ातिर खड़ा रहा होगा!"
"उसके रोज़ का टेम हो गया था ना!"
कहती हुई ठकुराइन पलँग पर अपने दोनों पाँव पसारकर अपना पानवाला ख़ानदानी संदूक खोलने लगती है।
'एकलव्य'
कोरट =न्यायालय/कोर्ट/अदालतमेहरिया =पत्नी
टेम = समय/टाइम
कुकुरा =कुत्ता
अलहदा लेखन शैली.. बहुत बढ़िया
ReplyDeleteपात्रों के नाम और संवादों कोतुहल जगाने में सफल।
आदरणीया पम्मी जी, इस लघुकथा पर अपने विचार रखने हेतु आपका आभार। सादर
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ReplyDeleteAnchal Pandey31 January 2020 at 18:56उधर दो लाठी खाकर झुमरू मौन धारण कर लिए साथ ही ठकुराइन रोटी भी दे देंगी। और इधर हमारे देश में इसी बेईमानी की रोटी के खातिर और कई बार लाठी खाने का डर बहुत से झुमरूओ की क्रांति की आग को ठंडा कर देता है। फिर ज़मींदार साहब के हौसले और बढ़ जाते छितना जैसे कितनों के परिवार पर संकट आ जाता और फिर लंबे समय के लिए कोर्ट में केस दर्ज हो जाता।
Deleteआपकी ये लघुकथा चीखकर कह रही कि अब इस व्यवस्था का कुछ तो किया जाए अन्यथा छितना के परिवार और संकट आएगा।
बहुत खूब लिखा आपने आदरणीय सर 👌
सादर प्रणाम 🙏
आदरणीया आँचल जी, आपकी प्रतिक्रिया इस कथा को सार देती है। सादर
Deleteग्रामीण परिवेश की हलचल को सूक्ष्मता से अनुभव कराती लघुकथा में प्रतीकों के माध्यम से व्यापक संदेश दिया गया है. ज़मींदारी प्रथा अब पुरखों के ज़माने की बात है, हालाँकि इसको हम रूपांतरित होता हुआ आज भी महसूस कर सकते हैं. भारत में सामाजिक ढाँचा आज भी कहीं-कहीं सदियों पुरानी विकृतियों के साथ नज़र आ जाता है.
ReplyDeleteरोचक व्यंग्यात्मक लघुकथा में चुटीले संवाद पाठक को ख़ूब गुदगुदाते हैं.
हास्य-व्यंग्य के साथ ग्रामीण पृष्ठभूमि का असरदार चित्रण.
बधाई एवं शुभकामनाएँ.
लेखक आजकल अनावश्यक विवादों के साथ निशाने पर हैं अतः आदरणीय गोपेश सर के सुझाव पर अमल करते हुए कुत्ते का नाम चाहो तो बदल देना.
आदरणीय रवींद्र जी प्रणाम,आपकी यह समीक्षा इस कथा को एक नया आयाम दे रही है। सादर
Deleteआदरणीया अनीता जी आपका आभार। सादर
ReplyDeleteसुन्दर लेखन।
ReplyDeleteअद्भुत लेखन,
ReplyDeleteरात्रि का पहर! झुमरू ज़मींदार साहब की चौखट पर मुँह बाये घंटों से खड़ा था। बीच-बीच में थोड़ा सुस्ताने हेतु गोल-गोल घूमकर पूँछ हिलाते हुए बैठ जाया करता और कभी-कभी भीतर से आती आवाज़ को सुनकर चौकन्ना हो एक चुस्त-दुरुस्त चौकीदार की भाँति खड़ा हो जाता। दो बरस पहले झुमरू की माँ उसे जन्म देते वक़्त यहीं ज़मींदार की गौशाला में ही गुज़र गयी। तब से झुमरू ज़मींदार साहब के टुकड़ों पर पल रहा है और अपनी वफ़ादारी निभाता चला आ रहा है।
ReplyDelete"क्या हुआ? अरे खाना तो पूरा खा लेते!भोजन पर काहे ग़ुस्सा उतार रहे हो? अरे, ऊ छितना की घरवाली गवाही दे दीस कोरट मा तो का हो गवा..! अभी सज़ा तो न हुई ना तुमका! भेज दो, दो-चार लठैत रात मा!सारी हेकड़ी निकल जाएगी उस छितना की मेहरिया की, दो मिनट में!ठकुराइन अपने ज़मींदार पति राणा जी को सलाह देती हुई समझाती है।
"अरे, का बतायें! लाख समझाया था उन ससुरों को!मुँह तोप के हमला करना!और केवल धमकाना ऊ छितना को। मुझको कआ पता था कि ई ससुर भीमा और बजरंगिया उसे जान से ही मार देंगे!औरो उसके घरवाली के ही सामने!" कहते हुए राणा जी हाथ में तम्बाकू मलते-मलते चूने के गर्दे को दोनों हाथों से ठोककर हवा में उड़ाते हैं।
"अरे जी! तुम नाहक़ ही चिंता करते हो। घर में दस-ठो कुत्तों को किस दिन के लिये पाल रखा है? छोड़ देना आज रात उसकी घरवाली पर। सारी अक़्ल ठिकाने आ जायेगी!"
अपनी ज़मींदारी का रौब झाड़ती हुई ठकुराइन पलँग से उठकर खड़ी हो जाती है, और भीतर से ही अपने नौकर बजरंगी को आवाज़ लगाने लगती है।
ठकुराइन की गरजती हुई आवाज़ सुनकर झुमरू चौकन्ना होकर खड़ा हो जाता है और बेतहाशा भौंकने लगता है, मानो कह रहा हो-
"मालिक आप यह अन्याय करने जा रहे हैं, छितना के परिवार के साथ! और मैं यह घोर अन्याय बिल्कुल नहीं होने दूँगा।"
तभी झुमरू की पीठ पर एक ज़ोर की लाठी उसके सम्पूर्ण क्रांतिकारी विचारों को एक करुणाभरी चीख़ में परिवर्तित कर देती है!
"अरे का हुआ! कउन है रे?" ठकुराइन भीतर से ही आवाज़ लगाती हुई पूछती है।
"अरे मालकिन हम हैं, बजरंगिया! ई ससुर तोहार कुकुरा झुमरूआ बौरा-बौराकर हम पर भौंके जा रहा था। दिया दुइ लाठी ससुर को!"
"अरे काहे भगा दिया उसे? रोटी ख़ातिर खड़ा रहा होगा!उसके रोज़ का टेम हो गया था न!"कहती हुई ठकुराइन पलँग पर अपने दोनों पाँव पसारकर अपना पानवाला ख़ानदानी संदूक खोलने लगती है।