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Friday, 21 February 2020

प्राणहंता ( लघुकथा )






प्राणहंता ( लघुकथा )


"यात्रीगण कृपया ध्यान दें!"
"कानपुर से लख़नऊ,निहालगढ़,सुल्तानपुर,जौनपुर से होकर वाराणसी को जाने वाली गाड़ी वरुणा एक्सप्रेस प्लेटफार्म नंबर दो पर खड़ी है।"
"यात्रियों से निवेदन है कि वे अपना-अपना स्थान ग्रहण करें!"
"धन्यवाद!"
बार-बार चेतावनी देने के अंदाज़ में शोर करता हुआ लख़नऊ रेलवे स्टेशन पर लगा रेलवे विभाग का आज्ञाकारी लाउडस्पीकर। प्लेटफार्म पर लोगों की भारी भीड़ एक-दूसरे को ठेलती हुई ट्रेन की ख़ाली बोगी की तरफ़ दौड़ती है। 

"अरे ओ धनिया!"
"इधर आ!"
"देख, ई बोगी में सीट दिख रहा है।"

कहते हुए रामचंदर महतो ने ट्रेन की ख़ाली बोगी में सरपट छलाँग लगा दी और सीट को अपनी पोटली से दबाते हुए राहत की श्वांस ली। 

"शाबाश महतो जी!"
"ये हुई ना महतो वाली बात।"
"सारी ज़मींदारी आख़िर हथिया ही ली तुमने ख़ाली सौ-ठो रुपल्ली वाले रेलवे के टिकट के साथ।"

एक अनोखी जीत की ख़ुशी ज़ाहिर करते हुए रामचंदर महतो का साथी धनिया। 

"राम!"
"राम!"
"राम!"
"कैसा समय आ गया है!"
"अरे भाई, हमें भी थोड़ी जगह दे दो!"
"का पूरी ट्रेन में अकेले ही बैठोगे?"
"ये ख़ाली तुम्हरी ट्रेन है का?"

शक़्ल से बहुत ही पढ़े-लिखे प्रतीत होते एक विद्वान महानुभाव जी अपनी भौंहें टेढ़ी कर धनिया पर तीखा व्यंग्य करते हैं। 

"अरे नाही महाराज!"
"आइये बैठिए!"

बड़े ही विनम्र भाव से निवेदन करता हुआ धनिया विद्वान जी को जगह दे देता है। 

"अरे ओ धनिया!"
"तनिक पोटली तो निकाल!"
"हो सकता है सुबह वाली एक-आध रोटी बची हो पोटली में।"
"बड़ी भूख लग रही है।"
"ऊ ससुर ठेकेदार दिन में हमें ठीक से खाये नाही दिया।"

कहते हुए रामचंदर महतो अपने गमछे से अपने माथे का पसीना पौंछने लगते हैं, और अपनी फटी बनियान के ऊपर से ही अपना बेढंगा पेट सहलाते हैं और अपने स्थान पर ही बैठे-बैठे थोड़ा करवट बदलते हुए हल्के से एक प्राणहंतक वायु ट्रेन के तंग वातावरण में छोड़ देते हैं। थोड़ी ही देर में ट्रेन के सम्पूर्ण वातावरण में एक गंभीर कोलाहल का माहौल छा जाता है। विद्वान महानुभाव जी इस प्राणहंतक वायु के वातावरण में फैलने का प्रतिरोध करते हुए-

"घोर अनर्थ!"
"महापाप!"
"तुम जाहिलों की वज़ह से ही हमारे रेल मंत्रालय को लगातार घाटा हो रहा है।"
"वो ज़माना ही ठीक था जब तुम जैसे मैले-कुचैले लोग पैदल ही चला करते थे।"
"सरकार ने क्या ढील दी तुम लोग तो सर पर ही लघुशंका करने पर उतारू हो गये हो!"
"अरे, जिनको हमने सदियों तक अपने कुएँ के अगल-बगल भटकने नहीं दिया और आज हमें इस ख़ोखले लोकतंत्र की वज़ह से तुम लोगों के साथ गले में गला डालकर यात्रा करना पड़ रहा है।"
"घबराओ नहीं!"
"नर्क भोगोगे तुम सब!"

उस विद्वान महानुभाव जी की बातें सुनकर डरे-सहमे रामचंदर महतो अपनी सीट से उठकर उनके समक्ष हाथ जोड़कर दंडवत हो लिये और क्षमा याचना करते हुए-
"अरे नाही महाराज!"
"ऐसा शाप न दें!"
" ग़रीब आदमी हैं।"
"हम ठहरे खाँची-अनपढ़।"  
"अनजाने में हमसे बड़ा भारी पाप हुइ गवा!"
"दिनभर ऊ ठेकेदार की वज़ह से हम ठीक से रोटी नहीं खा पाये।"
"तभी से ससुर हमरा पेट तनिक गड़बड़ लग रहा है।'
"हमरा इम्मे तनखो इच्छा न रही कि हम आपके समक्ष ई घोर कुकृत्य करें!"

तभी ट्रेन की गति कुछ धीमी पड़ने लगी और एक सुनसान इलाक़े में पहुँचते-पहुँचते ट्रेन एकाएक खड़ी हो गई। ट्रेन के अचानक रुकने से लगे झटके से स्वयं को संभालते हुए रामचंदर महतो ने ऊपर नज़र दौड़ाई जहाँ विद्वान महानुभाव जी ट्रेन की छत से लगे ज़ंजीर से लटके पड़े थे। ट्रेन रुकते ही विद्वान महानुभाव जी ने अपने ज्ञान का थैला उठाया और सीढ़ियों से उतरते ही ब्रह्मा जी की तरह कहीं झाड़ियों में अंतर्धान हो गये।  
                    

'एकलव्य'

 खाँची-अनपढ़= पूर्णतः निरक्षर /काला अक्षर भैंस बराबर 

Tuesday, 18 February 2020

गटरेश्वर ( लघुकथा )






गटरेश्वर ( लघुकथा )  

पाड़े जी के घर के सामने से बहती बजबजाती दुर्गन्धयुक्त नाली और उसमें घुसा एक राक्षस कद का आदमी! घर के भीतर से आती एक तीखी आवाज़-  
"राम!"
"राम!"
"राम!"
"का सभई धरम नाले में घोरकर पी गये हो पाड़े जी!"
"अरे ज़रा समाज का तो ख़याल कर लिया होता।"
"अब क्या अपनी जूती सर पर रखोगे!" 

गंभीर व्यंग्य करती हुई चिकनी पड़ाइन पाड़े जी को दो टूक सुनाती है। 

"का हरज है!"
"ख़ाली गिलास से पानी ही तो पीया रहा चमनवा जमादार।"
"बड़ी प्यास लगी रही बेचारे को।"
"सुबह से तुम्हारा संडास साफ़ कर रहा है।"
"आख़िर ऊ भी तो इंसान है!"
कहते हुए पाड़े जी चिकनी पड़ाइन के दरबार में अपनी बात बड़ी ही मज़बूती के साथ रखते हैं। 

"इतनी ही इंसानियत तुम्हरे दिल में हिलोरे मार रही है तो उस कलमुँहे को अपना दामाद क्यों नहीं बना लेते!"
"और आगी में डाल दो अपने सारे धर्म-शास्त्र और वेद-पुराणों की सीख!"  
"और बंद करो ये जाति-प्रथा!"
"दिखा दो अपनी फटी जाँघिया इस नये ज़माने को!" 
"अब बोलो!"
"बोलते काहे नहीं!" 
"मुँह काहे बंद हो गया?"
"अब नहीं दिखता क्या चमनवा जमादार में नाली का ईश्वर!"

            चिकनी पड़ाइन के इस कोरे तर्क के सामने पाड़े जी अपना शस्त्र डालकर उसका बेढंगा मुँह ताकने लगे। उधर इन दोनों पति-पत्नी की बातें सुनकर चमनवा जमादार गटर की नाली से अपना कीचड़ से सना मुँह निकाल खिखियाकर हँसने लगा। 
चमनवा जमादार पाड़े जी की हालत देखकर मानो कह रहा हो कि- 
"पाड़े जी अपनी सुधारवादी बातें अपने थैले में ही रखिए नहीं तो पूरी सृष्टि ही उलट पड़ेगी।"      
    
'एकलव्य' 

Monday, 3 February 2020

गोदी साहित्यकार ( लघुकथा )





गोदी साहित्यकार ( लघुकथा )



रात का पहर! बरगद के वृक्ष के नीचे बैठा पूरा गाँव।  

"आज़ादी के सत्तर बरस गुज़र गये परन्तु यह गाँव आज भी किसी उजाले की प्रतीक्षा में है।" 
"ना जाने वो रात कब आयेगी, जब हर मड़ई और मिट्टी के कच्चे घरों में आशा का वह टिमटिमाटा पीला लाटू  नाचेगा!" 

कहते हुए गाँव के सबसे पढ़े-लिखे मनई होरी लाल मुखिया पंचायत की बैठकी पर बैठकर हुक़्क़ा गुड़गुड़ाते हुए अपनी प्रगतिवादी सोच पंचायत के सम्माननीय सदस्यों और गाँववालों के समक्ष रखते हैं। 

"अरे मुखिया जी!"
"ग़ज़ब होइ गवा!"

तेज़ी से हाँफता हुआ रामेश्वर भरी पंचायत में आकर चिल्लाने लगता है।          

"का हुआ रे रामेश्वर!"
"तू इतना हाँफ क्यों रहा है?"
"का बात है?"
"का हो गवा?"
मुखिया जी कौतूहलपूर्वक रामेश्वर से खोज-ख़बर लेने लगते हैं।

रामेश्वर अपनी बाँह की कमीज़ में अपनी बहती हुई नाक को पौंछते हुए बोला-
"अरे मुखिया जी, गाँव के बाहर जंगलों में एक लाश मिली है जिसे जंगली जानवर बुरी तरह से चबा गये थे।"
"केवल उसके पास से एक सूती झोला और पहचान-पत्र बरामद किया गया है।"
"पहचान-पत्र से पुलिस ने उसकी शिनाख़्त की है।"
"ऊ अपने पटवारी का लड़का जम्बेश्वर रहा।"

"का बात करते हो रामेश्वर!"
"अबही पिछली रात मैंने उसे विधायक जी के आदमियों के साथ उनके आवास की तरफ़ जाते देखा था।"
"हो न हो यह विधायक जी का ही काम रहा हो!"

पनेसर महतो ने संदेह के आधार पर अपनी बानगी दो टूक शब्दों में कह दी।

"का मज़ाक करते हो पनेसर!"
"अरे, पिछली जनसभा में विधायक जी के कहने पर ही इहे जम्बेश्वर ससुर अपनी कविता में गा-गाकर उनकी हज़ारों तारीफ़ करा रहा!"
"औरे विधायक जी ने भी जम्बेश्वर को पूरे गाँव का श्रेष्ठ कवि घोषित कर रखा था।"
"और तुम तो उस धर्मात्मा पर ही गंभीर आक्षेप लगा रहे हो।"

मुखिया जी ने विधायक जी का पक्ष बड़ी ही मज़बूती के साथ रखा।

पनेसर महतो थोड़ा दबते हुए-
"अरे नाही मुखिया जी!"
"हम तो बस यही कहने की कोशिश करे रहे कि पिछले महीने उहे विधायक जी का लौंडा जड़ाऊ महतो की बहुरिया को जबरन खेतों में उठा ले गया रहा।"
"तब इहे ससुर कवि महाराज जम्बेश्वर, कोरट में उनके खिलाफ़ ग़वाही देवे पहुँच गये रहे।"
"तब जैसा किया था अब वैसा पा गये ससुर!"

"ठीक ही कह रहे हो पनेसर तुम।"
"जैसी करनी,वैसी भरनी!"

कहते हुए मुखिया जी अँगीठी की आग की तरफ़ अपना पैर कर पंचायत का हुक़्क़ा गुड़गुड़ाने लगते हैं,और एक लम्बी श्वास लेते हैं। मुँह से धुआँ निकालते हुए रामेश्वर से दोबारा पूछते हैं

"अरे रामेश्वर!"
"पुलिस से तूने कछु बका तो नहीं ना।"

रामेश्वर-
"अरे नाही मुखिया जी!"
"हम तोहे कउनो भंगेड़ी दिखते हैं!"
"लेना एक न देना दुइ!"
"हम काहे ई बेकार के झंझट में पड़ें।"
"औरो हमें कउनो सुपरमैन बनने की कोई विशेष इच्छा नाही है!"
"हाँ पर पुलिवाले गाँव में तफ़्तीश के लिये आ रहे हैं।"

इतना सुनते ही पंचायत के सभी सम्मानित सदस्य और गाँववाले वहाँ से एक-एक करके खिसकने लगे।    
    

    'एकलव्य' 
कोरट = कोर्ट/न्यायालय  

Sunday, 2 February 2020

पंचर फ़रिश्ता ( लघुकथा )



पंचर फ़रिश्ता ( लघुकथा



धुकधुक-धुकधुक... !  धुकधुक-धुकधुक... ! 

"अब क्या हो गया इस खचाड़ा बाईक को।"
"अभी तो सर्विसिंग करायी थी!"

खीझता हुआ बाईकसवार हाइवे की सड़क के किनारे अपनी बाईक रोकता है और उसके पिछले टायर को बड़े ही ध्यान से जाँचने लगता है।
"ओह हो!"
"इतनी  बड़ी कील!"
"और इस सुनसान हाइवे पर!"

कहता हुआ बाईकसवार अपनी बाईक के टायर से उस बड़ी-नुकीली कील को निकालकर सड़क के दूसरी तरफ़ झाड़ियों में फेंक देता है।

"हे भगवान!"
"इधर तो दूर-दूर तक कोई भी पंचर बनाने की दुकान नज़र नहीं आ रही है।"

             ग़ुस्से में अपने पैर पटकता हुआ बाईकसवार पैदल ही बाईक को दोनों हाथों से हाइवे की सड़क पर खींचने लगता है। थोड़ी दूर चलने के बाद उसे एक टूटी-फूटी झोपड़ी दिखाई देती है जहाँ एक अधेड़ उम्र का आदमी लगभग बारह-तेरह वर्ष के लड़के के साथ बैठा दिखाई देता है।

झोपड़ी की छत से कुछ पुराने टायर-ट्यूब पतली रस्सी की सहायता से हवा में लटक रहे थे जो रह-रहकर तेज़ हवाओं के झोंकों की मार से हवा में पेंडुलम की भाँति तैरने लगते थे। इससे यह साफ़तौर पर अंदाज़ा लगाया जा सकता था कि यहाँ पंचर बनाया जाता होगा।
          जिसे देखकर बाईकसवार अपनी बाईक को खींचता हुआ झोपड़ी की तरफ़ तेज़ी से बढ़ने लगा।
झोपड़ी के नज़दीक पहुँचते ही-
"का बाबू!"
"टायर पंचर हो गया।"

बड़े ही दृढ़ विश्वास के साथ फेंकूराम बाईकसवार की बाईक की ओर देखकर इशारा करता हुआ उससे मुस्कराकर कहता है।

"अरे, तुम्हें कैसे पता?"
"अभी तो मैंने कुछ भी नहीं बताया तुम्हें!"
"फिर कैसे?"

आश्चर्य से बाईकसवार फेंकूराम की ओर देखकर उससे पूछता है।

''का बाबू!"
"का बात करते हो!"
"सारी जिनगी बीत गई हमारी इसी हाइवे पर।"
"औरे इहे पंचर बनाते-बनाते।"
"और तुम हमही से पूछते हो पंचर कैसे बनता है!"
तीख़ा व्यंग्य कसता हुआ फेंकूराम।

थोड़ा झेंपता हुआ बाईकसवार-
"हमारा वो मतलब नहीं था।''
"हम तो बस।'
"अच्छा छोड़ो ये सब!''
"देखो हमारी बाईक का पिछला टायर पंचर है।"
"इसमें एक बड़ी नुकीली कील घुस गयी थी।"

थोड़ी देर तक एक पानीभरे बड़े बर्तन में ट्यूब उलटने-पलटने के बाद फेंकूराम बाईकसवार को उत्तर देता है-
"बाबू बड़ा पंचर है।"
"दो सौ रुपये लगेंगे।"
"बनवाना है तो बताओ!"

फेंकूराम की ना-जाएज़ माँग सुनकर बाईकसवार थोड़ा तैश में आकर बोला-
"अरे भाई!"
"ये क्या लूट मचा रखी है?'
"पंचर के चालीस रुपये बनते हैं।"
"ज़रा किफ़ायत से माँगो!"

फेंकूराम थोड़ा चुटीले अंदाज़ में-
"तो बाबू कोई किफ़ायत वाली दुकान खोज लो!"
"हम तो इतना ही लेंगे!"

बाईकसवार थोड़ी देर कुछ सोचकर-
"ठीक है!"
"पंचर बनाओ!"

थोड़ी देर बाद पंचर बनकर तैयार हो गया और बाईकसवार ने फेंकूराम को दो-सौ रुपये पकड़ाए और बाइक का एक्सीलेटर दबाता हुआ वहाँ से ढुर-ढुर की ध्वनि करते चलता बना।

"अरे बापू!"
"आपने उस बाईकवाले से इतने ढेर सारे पैसे क्यों लिये?"
"जबकि उसके बाईक का टायर हमारे द्वारा सड़क पर बिछायी गयी कीलों की वजह से ही पंचर हुआ था।"
"पैसे तो हमें उसे देने चाहिए थे।"

फेंकूराम का लड़का बड़े ही निश्च्छल मन से यह ज्वलंत प्रश्न उसकी तरफ़ दागता है।

फेंकूराम मंद-मंद मुस्कराता हुआ अपने किशोरवय लड़के से कहता है-
"बेटा,आजकल इसे ही दुनियादारी कहते हैं।"
"हमरे कुलही नेतागण भी तो यही कर रहे हैं ना।"
"ज़रा देख, आज वे कहाँ बैठे हैं!"
"वे भी तो एक फ़रिश्ते ही हैं हमारे लिये।"  
"चल जा!"
"और जाकर कोने में पड़े बक्से से दस-पंद्रह कील सड़क के बीचो-बीच फेंक आ!"
"इसी से तू एक दिन बड़ा आदमी बनेगा!"

कहता हुआ फेंकूराम अपने लड़के को कड़ी नसीहत देता है और लड़का अपने पिता द्वारा सुझाए मार्ग पर चलता हुआ बड़े ही ख़ुशी मन से सड़क पर कीलें बिखेरने लगता है।            
                 
                              '
'एकलव्य' 

खोखली पंचायत ( लघुकथा )

खोखली पंचायत ( लघुकथा )  "अ रे ए होरी!" "तनिक एक मस्त चाय तो बना!" "ससुर ई मच्छर!" "रातभर कछुआ...