मटमैला पानी ( लघुकथा )
"अरे सुना है, ऊ कलुआ पंचर वाले ने भी प्रधानी के चुनाव हेतु पर्चा भरा है!"
ठहाका मारके हँसते हुए छगन मिसिर।
रामसजीवन,
"अरे!"
"यह बात तो हमने भी सुनी है!"
छगन मिसिर,
"हाँ..!"
"ठीक ही है!"
"पंचर बनाते-बनाते कहीं गाँव की इज़्ज़त पर ही न पंचर चिपका दे!"
रामसजीवन,
"राम... !"
"राम ...!"
"राम...!"
"अब पंचर वाले भी हमार गाँव चलाने को तैयार हैं!"
"घनघोर कलयुग!"
तभी चमन डाकिया अपनी साईकिल की घंटी बजाता हुआ उन धनाढ्यों की चौपाल पर अपनी हाज़िरी लगाने पहुँचता है जहाँ सभी अलाव के चारों ओर बैठकर सर्दी का भरपूर आनंद ले रहे थे।
छगन मिसिर,
"का हो चमन!"
"कइसे हो ?"
चमन,
"सब ठीक है पंडित जी!"
छगन मिसिर व्यंग्य कसते हुए,
"आजकल हमरी चौपाल पर तुम्हरा आना-जाना बड़ा कम हो गया है!"
"का सारी चिट्ठी-पाती उहे कलुआ पंचरवाले की झोपड़िया में गिरावत हो का!"
चमन डाकिया,
"अरे नाही पंडित जी!"
"का बात करत हो!"
बात को टालते हुए चमन डाकिया वहाँ से चला जाता है। जल्द ही चमन की साईकिल सड़क के किनारे एक उजाड़-सी मड़ई, ( जहाँ ट्यूब के कुछ टुकड़े, लोहे के गोलाकार बर्तन में भरा मटमैला पानी और पास में ही रखा जंग लगा हवा भरने वाला पम्प जो मड़ई के घास-फूस की दीवार के सहारे टिकाकर रखा गया था।
मड़ई की छत से कुछ पुराने टायर लटक रहे थे मानो किसी साईकिल के पहिए में लगने से पहले ही अपने अंतिम अवस्था की बची चंद घड़ियाँ गिन रहे हों! ) के पास आकर रुकी।
मटमैले लोहे के बर्तन में रखे पानी में एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति ट्यूब के एक सिरे से दूसरे सिरे को बार-बार डुबोता और हवा के आवागमन को परखता।
छेद का अनुभव होने पर ट्यूब के उस स्थान को पास ही ज़मीन पर पड़े लकड़ी के टुकड़ों को छेद में घुसेड़ते हुए उन्हें चिन्हित करता।
चमन डाकिया,
"का हो कल्लु!"
"कैसे हो ?"
कल्लु,
"सब ठीक बा डाकिया बाबू!"
चमन डाकिया,
"तुम्हरे चुनाव की तैयारी कैसी चल रही है ?"
कल्लु,
"बस चल रहा है डाकिया बाबू!"
कहते हुए कल्लु मड़ई के एक कोने में रखा लकड़ी का स्टूल चमन के लिए बाहर ले आता है और चमन से बैठने का निवेदन करता है, और स्वयं पुनः जाकर पानी में डूबे हुए ट्यूब को पुनः उलटने-पलटने लगता है।
चमन डाकिया,
"अउर!"
"तोहार चुनाव की तैयारी के लिए कउनो पम्पलेट-वम्पलेट छपवाया ?"
कलुआ एक पल को शांत हो जाता है और उसकी निगाहें संभवतः अपनेआप को उसी बर्तन में रखे मटमैले पानी में तलाशतीं नज़र आती हैं।
लेखक - ध्रुव सिंह 'एकलव्य'
सामाजिक परिवेश मे आम जन के प्रति दुर्भावनापूर्ण धारणा व मिथक को उजागर करती आपकी इस लघुकथा हेतु साधुवाद आदरणीय एकलव्य जी।
ReplyDeleteआदरणीय पुरुषोत्तम जी, आपकी यह सृजनात्मक टिप्पणी हमारा मनोबल बढ़ाती है। आपका आभार। सादर
Deleteबहुत सुंदर संदेश। बधाई और आभार।
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय विश्वमोहन जी !
Deleteसटीक व्यंग।
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीया ज्योति जी !
Deleteसुन्दर संदेशपरक लघुकथा ....
ReplyDeleteवाह!!!
सटीक व्यंग्य सार्थक सृजन 👌
ReplyDeleteआदरणीय सर आपकी हर लघुकथा सीघा समाज की दुर्व्यवस्था और अनैतिकता पर प्रहार करती है।
ReplyDeleteसार्थक,सटीक सृजन 👌
सादर प्रणाम 🙏
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (27-01-2020) को 'धुएँ के बादल' (चर्चा अंक- 3593) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
*****
रवीन्द्र सिंह यादव
बहुत सुंदर और सटीक व्यंग्य 👌👌👌
ReplyDeleteएक छोटी सी कथा और बड़ा गहरा कटाक्ष ,सादर नमन आपको
ReplyDeleteहाशिए पर पड़े हुए लोगों की यही कहानी है। बहुत लेखन। 🌹
ReplyDelete