गोदी साहित्यकार ( लघुकथा )
रात का पहर! बरगद के वृक्ष के नीचे बैठा पूरा गाँव।
"आज़ादी के सत्तर बरस गुज़र गये परन्तु यह गाँव आज भी किसी उजाले की प्रतीक्षा में है।"
"ना जाने वो रात कब आयेगी, जब हर मड़ई और मिट्टी के कच्चे घरों में आशा का वह टिमटिमाटा पीला लाटू नाचेगा!"
कहते हुए गाँव के सबसे पढ़े-लिखे मनई होरी लाल मुखिया पंचायत की बैठकी पर बैठकर हुक़्क़ा गुड़गुड़ाते हुए अपनी प्रगतिवादी सोच पंचायत के सम्माननीय सदस्यों और गाँववालों के समक्ष रखते हैं।
"अरे मुखिया जी!"
"ग़ज़ब होइ गवा!"
तेज़ी से हाँफता हुआ रामेश्वर भरी पंचायत में आकर चिल्लाने लगता है।
"का हुआ रे रामेश्वर!"
"तू इतना हाँफ क्यों रहा है?"
"का बात है?"
"का हो गवा?"
मुखिया जी कौतूहलपूर्वक रामेश्वर से खोज-ख़बर लेने लगते हैं।
रामेश्वर अपनी बाँह की कमीज़ में अपनी बहती हुई नाक को पौंछते हुए बोला-
"अरे मुखिया जी, गाँव के बाहर जंगलों में एक लाश मिली है जिसे जंगली जानवर बुरी तरह से चबा गये थे।"
"केवल उसके पास से एक सूती झोला और पहचान-पत्र बरामद किया गया है।"
"पहचान-पत्र से पुलिस ने उसकी शिनाख़्त की है।"
"ऊ अपने पटवारी का लड़का जम्बेश्वर रहा।"
"का बात करते हो रामेश्वर!"
"अबही पिछली रात मैंने उसे विधायक जी के आदमियों के साथ उनके आवास की तरफ़ जाते देखा था।"
"हो न हो यह विधायक जी का ही काम रहा हो!"
पनेसर महतो ने संदेह के आधार पर अपनी बानगी दो टूक शब्दों में कह दी।
"का मज़ाक करते हो पनेसर!"
"अरे, पिछली जनसभा में विधायक जी के कहने पर ही इहे जम्बेश्वर ससुर अपनी कविता में गा-गाकर उनकी हज़ारों तारीफ़ करा रहा!"
"औरे विधायक जी ने भी जम्बेश्वर को पूरे गाँव का श्रेष्ठ कवि घोषित कर रखा था।"
"और तुम तो उस धर्मात्मा पर ही गंभीर आक्षेप लगा रहे हो।"
मुखिया जी ने विधायक जी का पक्ष बड़ी ही मज़बूती के साथ रखा।
पनेसर महतो थोड़ा दबते हुए-
"अरे नाही मुखिया जी!"
"हम तो बस यही कहने की कोशिश करे रहे कि पिछले महीने उहे विधायक जी का लौंडा जड़ाऊ महतो की बहुरिया को जबरन खेतों में उठा ले गया रहा।"
"तब इहे ससुर कवि महाराज जम्बेश्वर, कोरट में उनके खिलाफ़ ग़वाही देवे पहुँच गये रहे।"
"तब जैसा किया था अब वैसा पा गये ससुर!"
"ठीक ही कह रहे हो पनेसर तुम।"
"जैसी करनी,वैसी भरनी!"
कहते हुए मुखिया जी अँगीठी की आग की तरफ़ अपना पैर कर पंचायत का हुक़्क़ा गुड़गुड़ाने लगते हैं,और एक लम्बी श्वास लेते हैं। मुँह से धुआँ निकालते हुए रामेश्वर से दोबारा पूछते हैं
"अरे रामेश्वर!"
"पुलिस से तूने कछु बका तो नहीं ना।"
रामेश्वर-
"अरे नाही मुखिया जी!"
"हम तोहे कउनो भंगेड़ी दिखते हैं!"
"लेना एक न देना दुइ!"
"हम काहे ई बेकार के झंझट में पड़ें।"
"औरो हमें कउनो सुपरमैन बनने की कोई विशेष इच्छा नाही है!"
"हाँ पर पुलिवाले गाँव में तफ़्तीश के लिये आ रहे हैं।"
इतना सुनते ही पंचायत के सभी सम्मानित सदस्य और गाँववाले वहाँ से एक-एक करके खिसकने लगे।
'एकलव्य'
कोरट = कोर्ट/न्यायालय
एक शानदार लघुकथा जो यथार्थवादी चित्रण से सुसज्जित है.समाज की वास्तविकताओं का रोचक वर्णन पाठक को हास्य की स्वाभाविक अनुभूति कराता है. आजकल भारत में समाज को बाँटने की दुर्भावनाग्रस्त राजनीति उफान पर है जिसने बँटबारे की चौड़ी खाई खोद दी है समाज में जो सरकार समर्थक और सरकार विरोधी के नाम से कुख्यात हैं. जब कलाकार बँट गये तो लेखक कैसे बचते!
ReplyDeleteअभी तक तो गोदी मीडिया चर्चा में था अब आप गोदी साहित्यकर अर्थात सरकार के हरेक अच्छे-ग़लत कार्य का अंध प्रशंसक.
लघुकथा के चुटीले संवाद समाज का अपना सच उगलते नज़र आते हैं.एक उत्कृष्ट लघुकथा जो एक साथ कई मुद्दों को समेटती है.
बधाई एवं शुभकामनाएँ.
आदरणीय सर आपकी लघुकथाएँ केवल लघुकथा नही अपितु तरकश है जिसमें एक साथ कई बाण रख देते हैं आप वो भी अचूक। अब इन गाँव वालों के मिट्टी के घरों में आशा का वो पीला टिमटिमाता लाटू कब नाचेगा ये तो डिजिटल इंडिया की सरकार और उनकी नीतियाँ जाने।
ReplyDelete....खैर हम कवि महाराज जम्बेश्वर जी पर आते हैं जो विधायक जी के गुणगान गाते गाते परमधाम सिधार गये। ये बड़े अफ़सोस की बात है कि आज साहित्यिकार पक्ष-विपक्ष की पंगत में आंखें मूँदकर बैठ गए हैं। उचित - अनुचित को अनदेखा कर झूठी शान गाकर ना केवल जन मन को भटकाते हैं बल्कि साहित्य की गरिमा पर चोट कर कलम की क्षमता को भी क्षीण कर रहे हैं।
जैसा की आदरणीय रवीन्द्र सर ने कहा कि राजनीति की दुर्भावना के चलते लेखक बँट रहे हैं।
साहित्य देश,समाज की विचारधारा तय करता है। और यदि साहित्यिकार ही अपने कर्तव्यों को त्याग कर स्वार्थ सिद्धि हेतु दुर्मती को अपना ले तो हम समाज की वैचारिक उन्नति की उम्मीद नही कर सकते। आज जो देश के हालात हो रखे हैं ये बेहद आवश्यक है कि साहित्यिकार अपने कर्तव्यों को जाने और देश का,जनता का वास्तविकता से परिचय कराए।
बाकी आपकी ये लघुकथा भी लाजवाब रही। आपकी कर्तव्यनिष्ठ लेखनी और आपको सादर प्रणाम 🙏
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ReplyDeleteसमाज का कड़वा सच व्यक्त करती बहुत सुंदर लघुकथा।
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (09-02-2020) को "हिन्दी भाषा और अशुद्धिकरण की समस्या" (चर्चा अंक 3606) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
ध्रुव, श्री लाल शुक्ल ने 'राग दरबारी' में -'अहा, ग्राम्य-जीवन भी क्या है ! वाली गाँव की रोमांटिक छवि को तोड़ दिया था. अब तुम उस काल्पनिक रूमानी छवि को चूर-चूर करने पर तुले पड़े हो.
ReplyDeleteलगे रहो ध्रुव भाई !
आदरणीय गोपेश जी सादर प्रणाम! अब आप ही बताइये सनम-सनम सनीमा गाना गाने वालों को और मैं क्या समझाऊँ ! सादर
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