पंचर फ़रिश्ता ( लघुकथा )
धुकधुक-धुकधुक... ! धुकधुक-धुकधुक... !
"अब क्या हो गया इस खचाड़ा बाईक को।"
"अभी तो सर्विसिंग करायी थी!"
खीझता हुआ बाईकसवार हाइवे की सड़क के किनारे अपनी बाईक रोकता है और उसके पिछले टायर को बड़े ही ध्यान से जाँचने लगता है।
"ओह हो!"
"इतनी बड़ी कील!"
"और इस सुनसान हाइवे पर!"
कहता हुआ बाईकसवार अपनी बाईक के टायर से उस बड़ी-नुकीली कील को निकालकर सड़क के दूसरी तरफ़ झाड़ियों में फेंक देता है।
"हे भगवान!"
"इधर तो दूर-दूर तक कोई भी पंचर बनाने की दुकान नज़र नहीं आ रही है।"
ग़ुस्से में अपने पैर पटकता हुआ बाईकसवार पैदल ही बाईक को दोनों हाथों से हाइवे की सड़क पर खींचने लगता है। थोड़ी दूर चलने के बाद उसे एक टूटी-फूटी झोपड़ी दिखाई देती है जहाँ एक अधेड़ उम्र का आदमी लगभग बारह-तेरह वर्ष के लड़के के साथ बैठा दिखाई देता है।
झोपड़ी की छत से कुछ पुराने टायर-ट्यूब पतली रस्सी की सहायता से हवा में लटक रहे थे जो रह-रहकर तेज़ हवाओं के झोंकों की मार से हवा में पेंडुलम की भाँति तैरने लगते थे। इससे यह साफ़तौर पर अंदाज़ा लगाया जा सकता था कि यहाँ पंचर बनाया जाता होगा।
जिसे देखकर बाईकसवार अपनी बाईक को खींचता हुआ झोपड़ी की तरफ़ तेज़ी से बढ़ने लगा।
झोपड़ी के नज़दीक पहुँचते ही-
"का बाबू!"
"टायर पंचर हो गया।"
बड़े ही दृढ़ विश्वास के साथ फेंकूराम बाईकसवार की बाईक की ओर देखकर इशारा करता हुआ उससे मुस्कराकर कहता है।
"अरे, तुम्हें कैसे पता?"
"अभी तो मैंने कुछ भी नहीं बताया तुम्हें!"
"फिर कैसे?"
आश्चर्य से बाईकसवार फेंकूराम की ओर देखकर उससे पूछता है।
''का बाबू!"
"का बात करते हो!"
"सारी जिनगी बीत गई हमारी इसी हाइवे पर।"
"औरे इहे पंचर बनाते-बनाते।"
"और तुम हमही से पूछते हो पंचर कैसे बनता है!"
तीख़ा व्यंग्य कसता हुआ फेंकूराम।
थोड़ा झेंपता हुआ बाईकसवार-
"हमारा वो मतलब नहीं था।''
"हम तो बस।'
"अच्छा छोड़ो ये सब!''
"देखो हमारी बाईक का पिछला टायर पंचर है।"
"इसमें एक बड़ी नुकीली कील घुस गयी थी।"
थोड़ी देर तक एक पानीभरे बड़े बर्तन में ट्यूब उलटने-पलटने के बाद फेंकूराम बाईकसवार को उत्तर देता है-
"बाबू बड़ा पंचर है।"
"दो सौ रुपये लगेंगे।"
"बनवाना है तो बताओ!"
फेंकूराम की ना-जाएज़ माँग सुनकर बाईकसवार थोड़ा तैश में आकर बोला-
"अरे भाई!"
"ये क्या लूट मचा रखी है?'
"पंचर के चालीस रुपये बनते हैं।"
"ज़रा किफ़ायत से माँगो!"
फेंकूराम थोड़ा चुटीले अंदाज़ में-
"तो बाबू कोई किफ़ायत वाली दुकान खोज लो!"
"हम तो इतना ही लेंगे!"
बाईकसवार थोड़ी देर कुछ सोचकर-
"ठीक है!"
"पंचर बनाओ!"
थोड़ी देर बाद पंचर बनकर तैयार हो गया और बाईकसवार ने फेंकूराम को दो-सौ रुपये पकड़ाए और बाइक का एक्सीलेटर दबाता हुआ वहाँ से ढुर-ढुर की ध्वनि करते चलता बना।
"अरे बापू!"
"आपने उस बाईकवाले से इतने ढेर सारे पैसे क्यों लिये?"
"जबकि उसके बाईक का टायर हमारे द्वारा सड़क पर बिछायी गयी कीलों की वजह से ही पंचर हुआ था।"
"पैसे तो हमें उसे देने चाहिए थे।"
फेंकूराम का लड़का बड़े ही निश्च्छल मन से यह ज्वलंत प्रश्न उसकी तरफ़ दागता है।
फेंकूराम मंद-मंद मुस्कराता हुआ अपने किशोरवय लड़के से कहता है-
"बेटा,आजकल इसे ही दुनियादारी कहते हैं।"
"हमरे कुलही नेतागण भी तो यही कर रहे हैं ना।"
"ज़रा देख, आज वे कहाँ बैठे हैं!"
"वे भी तो एक फ़रिश्ते ही हैं हमारे लिये।"
"चल जा!"
"और जाकर कोने में पड़े बक्से से दस-पंद्रह कील सड़क के बीचो-बीच फेंक आ!"
"इसी से तू एक दिन बड़ा आदमी बनेगा!"
कहता हुआ फेंकूराम अपने लड़के को कड़ी नसीहत देता है और लड़का अपने पिता द्वारा सुझाए मार्ग पर चलता हुआ बड़े ही ख़ुशी मन से सड़क पर कीलें बिखेरने लगता है।
'
'एकलव्य'
उचित है.. अब ऐसी ही सोच है..
ReplyDelete, परंतु दो सौ रुपये से उसकी झोपड़ी महल में परिवर्तित तो नहीं हुई न ,वह जिंदगी भर कील फेंकता रहेगा..फिर भी..
हाँ, ठेकेदारी , नेतागिरी में अपने लड़के को लगा दे अथवा किसी माफिया के संग कर दे तो उसे इस अर्थयुग की दुनियादारी अवश्य आ जाएगी।
हमारे चील्ह - शास्त्रीपुल मार्ग पर एक मिला इहे करत रहल। एक दिन जमकर पिटाई भइल , सरवा दुकान बंद कर भगलेस।
हाँ कउनो दबंग का संग रहत त सीना तानले रहत ।
सादर ।
गरीब भी अगर बेइमानी करेगा तो लात तो उसके भी पडनी ही चाहिए.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया 👌👌
ReplyDeleteआजकल लोग अपने स्वार्थ के लिए ऐसा ही कर रहे हैं। लेकिन यह गलत हैं।
ReplyDeleteअब मजबूरी में जो मिले वही फ़रिश्ता। कुछ ऐसा हाल हमारे देश का भी हो रक्खा है। सही कहा फेकूराम ने ' हमारे नेतागण भी किसी फ़रिश्ते से कम नही ' जो खुद ही कील बिछा कर पंचर ठीक करने के बहाने मनमर्जी वसूलते हैं।
ReplyDeleteबहुत खूब लिखा आपने आदरणीय सर। आपकी कई लघुकथाएँ पढ़ चुके हम। आप अपनी रचनाओं में जिस तरह जन साधारण को और उनकी समस्याओं को स्थान देते हैं और साथ ही देश की उलटी राजनीति पर प्रहार करते हुए आम जनमानस का वास्तविकता से परिचय करवाते हैं हम यह कह सकते हैं कि आप शायद मुंशी प्रेमचंद जी से बहुत प्रभावित हैं। इसकी झलक आपकी रचनाओं में साफ़ है। आपकी कलम का हर प्रयास सार्थक है। आपको और आपकी कलम को सादर प्रणाम 🙏
आदरणीया आँचल जी सर्वप्रथम आपको मेरी तरफ़ से बहुत-बहुत धन्यवाद जो आप मेरी हर लघुकथा पढ़ती हैं एवं उसका सार पटल पर बख़ूबी रखती हैं और सत्य कहा आपने हम मुंशी जी से अवश्य प्रभावित हैं परन्तु यदि हम उनकी बातों एवं उद्देश्यों को आगे न ले गये तो संभवतः उनका सपना और मेहनत दोनों अधूरे रह जायेंगे! उनकी मृत्यु के उपरांत शायद उनकी कहानियों की ख़ूब वाह-वाही की गई परन्तु उनके कथानक (शोषित-शोषक वर्ग) को उन्हीं के विरोधी लोगों ने एक षड्यंत्र के तहत गर्त में पहुँचा दिया और जो कोई भी उनका पक्ष रखता उससे साहित्यकार होने का तमग़ा ही छीन लिया जाता इसी डर से लोग केवल बसंत का महिमामंडन करने में जुट गये। कई लेखकों ने लिखना भी चाहा परन्तु केवल लालचवश न कि उस समाज के हित में। ये लेखक हाकिमों के दरबारी कवि और लेखक बन चुके हैं। इसी विषय को लेकर मेरी नई लघुकथा "गोदी साहित्यकार" उपस्थित है ताकि ये दरबारी कवि और लेखक साहित्य की सुचिता का कुछ तो ख़्याल करें! सादर
Deleteपंचर फ़रिश्ता में हास्य-व्यंग्य के साथ ज्वलंत सामाजिक बिडंबना पर प्रकाश डाला गया है. राजनीति की राह पर चलने को आतुर पंचर फ़रिश्ता एक मज़बूरन उत्पन्न अवसर से तुरत लाभ उठाने की नियत रखता है और अपनी अगली पीढ़ी को भी ग़लत राह पर चलने को प्रेरित व विवश करता है.
ReplyDeleteएक बात यहाँ खटकती है कि किशोर अपने पिता की निर्लज्ज घटिया मानसिकता का अनुयायी ख़ुशी-ख़ुशी क्यों बन गया? क्या अब लम्पट समाज में उम्मीद की कोई किरण नहीं बची?
समाज का वास्तविक चित्रण प्रस्तुत करती लघुकथा अंत में पाठक को निराश होकर सोचने को कहती है.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (14-02-2020) को "प्रेम दिवस की बधाई हो" (चर्चा अंक-3611) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
आँचल पाण्डेय