अम्मा गिर गई! ( लघुकथा )
रोज़-रोज़ की किच-किच! मैं तो थक गया हूँ इस घर से, कहते हुए वक़ील साहब कचहरी जाने के लिए तैयार होते हुए।
लाजवंती मुँह फुलाए वक़ील साहब को उलाहना देती हुई।
लाजवंती-
"हाँ जी!"
"मैं ही सबसे बुरी हूँ!"
"बाक़ी सभी दूध के धुले हैं!"
कहते-कहते रोने लगती है।
"पहले इस आदमी ( वक़ील साहब की ओर इशारा करती हुई ) से कभी कोई सुख नहीं मिला!"
"और अब ये नई बहुरिया के अपने ही ठाट-बाट!"
"जब देखो तब महारानी एलिज़ाबेथ, टाँग पसारे चारपाई तोड़ती रहती है!"
"और मैं मुई"
"इस कड़कड़ाती ठंड में घर का झाड़ू-पौंछा कर-करके मरी जा रही हूँ!"
"और मेरा सुपुत्र रामखेलावन अपने ही खेला में दिन-दोगुनी,रात पॉँच गुनी करने में मस्त है!"
"मेरे तो भाग ही फूट गए!"
"अरे किरीतिया!"
"कब ठीक होगी रे तू?"
वक़ील साहब की बहुरिया 'किरीतिया' चार दिन से मलेरिया के बुख़ार से पीड़ित थी, नहीं तो घर का सारा काम-धाम उसी के सर पर फूटता था।
जबसे किरीतिया खटिया पर पड़ी है, लाजवंती के मुँह पर बारह ही बजे रहते हैं, और काम कम उसका सारा समय किरीतिया को ताने देने में ही गुज़र जाता है।
खैर, किसी तरह रोज़ के चूल्हा-चौके का काम निपटाकर लाजवंती सीढ़ियों से उतर रही थी कि उसका पाँव फिसल गया!
भारी ढुलमुल शरीर होने की वज़ह से वह स्वयं को संभाल न सकी और कई करवटें लेती हुई प्रारम्भ से अंतिम सीढ़ी के फ़र्श पर आ पसरी, और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाना शुरु कर दिया!
वक़ील साहब लाजवंती के इस करुण पुकार को सुनकर उल्टे पाँव दौड़े, और उधर किरीतिया बुख़ार होते हुए भी जैसे-तैसे लाजवंती को उठाने पहुँच गयी!
किसी तरह मिल-मिलाकर दोनों ने लाजवंती को उसके बिस्तर तक पहुँचाया।
लाजवंती को दिन में ही चाँद-तारों के दर्शन होने लगे थे! किरीतिया लाजवंती के सर पर अपना हाथ फेरने लगी जो बुख़ार होने की वज़ह से अत्यंत गर्म था!
किरीतिया- माँ जी!
"अब कैसी तबीयत है?"
लाजवंती से कहती हुई।
परन्तु लाजवंती दर्द के कारण बोलने में अक्षम थी सो धीरे से अपनी पलकें झपका दी। संभवतः लाजवंती के हड्डी में चोट लगी थी यह भाँपते हुए किरीतिया शीघ्र ही रसोईंघर की ओर भागी और हल्दीवाला दूध बनाकर ले आयी, और लाजवंती को इसे पीने के लिए कहने लगी। परन्तु आज लाजवंती को अपने किये गए कर्मों पर पछतावा हो रहा था।
मौन ही वह किरीतिया को देखे जा रही थी और पश्चाताप के अश्रु उसकी आँखों से स्वतः ही गतिमान थे!
'एकलव्य'
अंत भला तो सब भला ! ऐसी हैप्पी एंडिंग के लिए तो लाजवंती का सीढ़ियों से दस बार लुढ़कना भी हमको मंज़ूर है !
ReplyDeleteआहा! वाह! क्या सुखद अंत है! आपकी लघुक्थाएं सदा ही रोचक होती हैं। सादर प्रणाम 🙏
ReplyDeleteसुखांत लिए सुंदर लघुकथा।
ReplyDeleteअपने और पराये में यही अंतर होता है कि यदि कोई अपना है, तो मनमुटाव के बावजूद भी संकटकाल में सभी एकजुट हो जाते हैं और यदि वह गैर है,तो आपसी मधुर संबंध
ReplyDeleteतक को गोली मार कन्नी काट लेते हैं कि कहीं कोई सहयोग न मांग ले।
लघुकथा के माध्यम से भावनाओं को उभारे का आपका प्रयास सराहनीय है।
हल्के बरतन धीमे धीमे खड़खड़ाते हुऐ रसोई के :) जरूरी भी है।
ReplyDeleteवाह बहुत सुंदर लघुकथा, और अंत भी बहुत सुखद।
ReplyDeleteवाह!!ध्रुव जी ,बहुत खूब!!
ReplyDeleteप्रेरक सुखांत लघुकथा जो मानवीय मूल्यों की स्थापना करती नज़र आती है. भलमनसाहत जैसा सामाजिक मूल्य अपना असर कभी नहीं खोता है.
ReplyDeleteउत्कृष्ट लघुकथा.
जी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (31-01-2020) को "ऐ जिंदगी तेरी हर बात से डर लगता है"(चर्चा अंक - 3597) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता लागुरी 'अनु '
बहुत ही सुंदर और हृदयस्पर्शी लघु कथा।
ReplyDeleteबहुत सुंदर
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