Sunday, 19 January 2020

नौटंकी ( लघुकथा )







    नौटंकी ( लघुकथा )

वाराणसी शहर अपने अल्हड़-मस्ती और मस्तानों की एक से बढ़कर एक टोली हेतु मशहूर, और बात करें लंका स्थित पनवड़िया बनारसी पानवाले के पान की दुकान की तो क्या बात ! 

          संसद में जितने सत्र होते हैं वर्ष में, उसमें सभी माननीय उपस्थित हों यह आवश्यक नहीं परन्तु पनवड़िया बनारसी के पान की दुकान पर वर्षभर सत्र का आयोजन कोई आम बात नहीं और वो भी शहरभर के धुरंधर ज्ञानी 'मनई' का जमावड़ा! 
पनवड़िया बनारसी और उसकी दुकान में ज़ोर-ज़ोर से बजता सुपरहिट भोजपुरी चलचित्रों का मनलुभावन देशी अपनत्व और कुछ पाश्चात्य की अश्लीलता से सराबोर पॉप टाइप आधुनिक संगीत! 

सुबह का समय, पंडित फुदकूराम जी का आगमन -
पंडित फुदकू राम बड़े ही रौब से ऐंठते हुए-
"अरे बनारसी!"
"थोड़ा चकाचक पान तो लगा!"
पनवड़िया बनारसी पान लगाने में मस्त।
"अरे पंडित जी प्रणाम!"
"का हाल-चाल बा ?"
 उधर से विद्याधर द्विवेदी बड़ी ही शालीनता से बोले। 

पंडित फुदकूराम नाक-भौं सिकोड़ते हुए प्रतिउत्तर में अपने पान के दागों से रंगे दाँत विद्याधर द्विवेदी को दिखा दिये!
विद्याधर द्विवेदी बड़े ही चुटीले अंदाज में-
"पंडित जी कछु सुना ?"

पंडित फुदकूराम  तनिक ऐंठते हुए-
"सुन ही तो रहे हैं!"
"अउर का मूँगफली थोड़े न तोड़ रहे हैं!"
विद्याधर द्विवेदी, पंडित फुदकूराम के इस व्यंग्यात्मक प्रतिक्रिया से अपनेआप को थोड़ा असहज महसूस करने लगे।
पंडित फुदकूराम थोड़ा नरम पड़ते हुए-
"अब नया का हो गवा ?"

विद्याधर द्विवेदी उत्सुकतापूर्वक-
"अरे!"
"सबरीमला का कांड सुने की नाही ?"

पंडित फुदकूराम कुंठाभरी प्रतिक्रिया देते हुए-
"औरो का सुने!"
"घर-बार के कांड से फुर्सत मिले तब ना!"
"ख़ैर छोड़िए!"
"क्या रखा है देश-दुनिया की ख़बरों में ?"
"यहाँ तो कुलहिन भ्रष्टाचारी हैं!"
"केके देखें ?"
"कउनो कुछ कहते भी नहीं!"
"सभी के मुँह जो सिले हैं!"

"अबही हाल ही की एक घटना ले लीजिए!"
"गाँव में शौचालय बनाने का पैसा ब्लॉक का प्रमुख अउर ग्रामप्रधान दोनों सठगठिया भाई मिलकर गपत कर गये!"
"सरकारी कागज़ में शौचालय निर्मित!"
"अउरो ससुर धरती पर नदारद!"
"अउर तो अउर सड़क पर पुलिसवालों की दादागीरी अलगे चल रही है!"

"भारी वाहनों के प्रवेश हेतु वर्जित सड़क पर हमारे रक्षक खाली बीस-ठो रुपल्ली खातिर रात में भारी सामान से भरे ट्रकों को बिना किसी रोक-टोक के आने-जाने की सहर्ष अनुमति प्रदान करते हैं!"
"अउर का देखें ?"
"सभी तो देख ही रहे हैं परन्तु सभी ने बाबा विश्वनाथ की कछु न बोलने की कसम ले रखी है!"

      तभी सड़क के दूसरी ओर से ज़ोर-ज़ोर किसी के रोने-गिड़गिड़ाने की आवाज़ सुनाई पड़ने लगी!
पनवड़िया बनारसी के दुकान पर खड़े सभी सज्जन उस चलचित्र को देख रहे थे जहाँ एक ग़रीब रिक्शावाला यह कहते हुए अपने प्राणों की भीख माँग रहा था कि,

"साहब हमसे गलती हो गई!"
"रिक्शे का चेन उतर गया था इसलिए रिक्शा सड़क के किनारे लगाने में तनिक देर हो गई!"

परन्तु रिक्शेवाले की ये खोखली दलीलें उस ईमानदार पुलिसवाले के समक्ष बौनी साबित हो रही थीं, और क़ानून  के समुचित पालन हेतु वह लगातार उस ग़रीब रिक्शेवाले के ऊपर लाठियों की बौछार करता चला जा रहा था। 

        पनवड़िया बनारसी के सभी गणमान्य ग्राहक मूकदर्शक बने यह नाटक बड़ी ही ईमानदारी और तन्मयता के साथ देख रहे थे! तभी पंडित फुदकूराम यह कहते हुए वहाँ से निकल लिए कि,
"बड़ी देर हो रही है!"
"इस नौटंकी का प्रसारण कोई खास बात नहीं!"   



लेखक : ध्रुव सिंह 'एकलव्य'
    

12 comments:

  1. ऐसे जागरूक और रहमदिल इंसानों के बारे में क्या बात कर रहे हो? क्या तुम नहीं जानते?
    सारे जहाँ का दर्द इन्हीं के जिगर में है.

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    1. आदरणीय गोपेश जी प्रणाम,  आपकी टिप्पणी के समक्ष अब मैं क्या कहूँ !  सादर 

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  2. यथार्थ को इंगित करती लघु कथा. पुलिस वालों की निर्दयता के साथ समाज में हनन होते मानवीय मूल्यों का लेखा जोखा अच्छे से उकेरा है आदरणीय आपने
    सादर

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    1. आदरणीया, रचना की समीक्षा हेतु आपका बहुत-बहुत आभार। सादर

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  3. बनारसी रंग में पुलिस की संवेदना पर सवाल उठाती लघुकथा में निष्ठुर होते समाज की झलक यथार्थ का चित्रण है. पुलिस का क्रूर होना पुरानी बात है अब तो उत्तर प्रदेश में उसका भयावह सांप्रदायिक चेहरा भी उभरा है जो गंभीर चिंतनीय विषय है.
    उत्कृष्ट लघुकथा जो अपना उद्देश्य सम्प्रेषित करने में सफल है.

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  4. सारगर्भित लघुकथा।
    मानवीय मूल्यों पर दाएँ बाएँ हो कर निकलना शायद समझदारी ही है।

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  5. वाह! आदरणीय सर
    वास्तविकता का दर्पण लिए घूमती है आपकी रचना। सत्य है, देश की आधी उन्नति तो ऐसे जागरूक और समझदार फुदकूराम जी जैसे लोगों के कारण है। बाकी इस दौर में तो मानवीय मूल्यों की बात भी ' नौटंकी ' लगती है।
    बहुत खूब लिखा आपने आदरणीय सर। सादर प्रणाम 🙏

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  6. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (24-01-2020) को  " दर्पण मेरा" (चर्चा अंक - 3590)  पर भी होगी
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
    महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    .....
    अनीता लागुरी 'अनु '

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  7. हर कोई अपने आप को एक जागरूक और संवेदनशील इंसान कहता हैं। लेकिन असल मे सब मूकदर्शक बनी रहते हैं जब तक उन पर खुद पर कोई आफत न आए। बहुत सुंदर यतार्थ प्रगट करती रचना।

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  8. निर्बल पर अत्याचार की परंपरा हमारे जैसे लोगों के मौन से और प्रबल होती है। लघु कथा के माध्यम से समाज के यथार्थ का सटीक चित्रण आपने किया है।

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  9. अरे,ध्रुव जी यह तो हमारे देश की परम्परा है (सदियों से ऐसा ही होता आ रहा है) निर्बल पर वार करने से कोई नहीं चूकता ,फिर ये तो ठहरे पुलिस वाले ,बेचारे रिक्शा वाले की इनके सामने क्या औकात ?

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