लोकतंत्र का मुर्दा ( लघुकथा )
काली अँधेरी ख़ुशनुमा सर्दी की रात! हॉस्पिटल के बाहर अजीब-सी चहल-क़दमी! शहर के लोगों का हुजूम! कोई अपने सर पटक रहा था तो कोई अपनी छाती पीट रहा था! निरंतर हॉस्पिटल के मुख्य द्वार से एम्बुलेंस का आवागमन। जितनी बार एम्बुलेंस का दरवाज़ा खुलता उतनी बार घायलों और मृतकों की भीड़ हॉस्पिटल के अंदर वार्डबॉयों द्वारा प्रवेश करायी जाती। पुलिस उन मृतकों एवं घायलों के परिवारजनों को बलपूर्वक बाहर ढकेल रही थी। हॉस्पिटल परिसर के दूसरी तरफ़ नेताओं का चिरपरिचित आरोप-प्रत्यारोप का मंगलकार्य ज़ारी था।
भीड़ से एक महिला वार्डबॉय धनेसर की बाँह पकड़कर खींचते हुए एक तस्वीर दिखाकर पूछती है-
"भइया!"
"तनिक ई फोटू देखो!
"का इसे हॉस्पिटल में देखा है?"
"दो दिन से घर नहीं आया।"
"शायद ग़लती से यहाँ आ गया हो।"
कहते हुए वह महिला धनेसर की बाँह पकड़ते-पकड़ते ज़मीन पर गिर गयी और चीख़-चीख़कर रोने लगी। धनेसर उस महिला को सांत्वना दे पाता इसके पहले ही पुलिसवालों ने उसे हॉस्पिटल से खदेड़कर बाहर कर दिया। धनेसर भी स्ट्रेचर को बलपूर्वक ढकेलता हुआ शवगृह की ओर चल दिया।
"बड़ी बेरहमी से जलाया गया!"
"कितने हैवान हो गये हैं लोग!"
"ज़रा भी इंसानियत नहीं बची है लोगों में।"
"धनेसर!"
"मृतकों को जल्दी काउंट कर लो!"
"कल सुबह तक हॉस्पिटल प्रशासन को हमें रिपोर्ट देनी है।"
कहते हुए डा. देशमुख धनेसर को सख़्त हिदायत देते हैं।
"एक"
"दो"
"तीन"
"चार"......... ......... ....... सैंतीस।
"साहेब कुल सैंतीस मुर्दे हैं अभी तक।"
डा. देशमुख धनेसर पर ग़ुस्से से लाल-पीले होते हुए-
"बेवकूफ़!"
"हमें सख़्त आदेश दिया गया है कि मुर्दों की संख्या कम बतायें जिससे कि शांति बहाल हो सके।"
डा. देशमुख की कड़ी फटकार सुनकर धनेसर सैंतीसवें मुर्दे के पैर में लटक रहे नंबर टैग को खोलने लगा।
तभी एकाएक उसके कान में एक खुसफुसाहट-सी हुई! उसने अपनी नज़रें उठायीं और मुर्दे की तरफ़ देखा। और एक पल देखता ही रह गया। सैंतीसवें नम्बर का मुर्दा स्ट्रेचर पर बैठा-बैठा हँसते हुए कह रहा था-
"साहेब आप से ग़लती हुई है।"
"मैं तो अड़तीसवें नंबर का मुर्दा था!"
घबराहट में धनेसर के मुँह से एक ज़ोर की चीख़ निकल गयी और वह स्ट्रेचर से दूर हट गया।
"क्या हुआ धनेसर?"
"तुझे इतना पसीना क्यों आ रहा है?"
"कहीं कोई भूत-वूत तो नहीं देख लिया!''
कहते हुए डा. देशमुख; धनेसर की घबराहट पर चुटकी लेते हैं।
परंतु भय से काँपता हुआ धनेसर-
"साहेब मैंने उस सैंतीस नंबर वाले मुर्दे को बोलते हुए सुना है।"
धनेसर की बात सुनकर डा. देशमुख बड़े ज़ोर का ठहाका लगाकर हँसते हुए कहते हैं-
"अरे भई!"
"यह लोकतंत्र है।"
"यहाँ ज़िंदा व्यक्ति का तो पता नहीं।'
"मुर्दे भी बोलते हैं!"
समाप्त
वाह यहां जिंदों तक का पता नहीं मुर्दे भी बोलते हैं
ReplyDeleteकरारा कटाक्ष
वाह!ध्रुव जी , बहुत करारा व्यंग्य 👌👌
ReplyDeleteलोकतंत्र का मुर्दा केवल लघुकथा नहीं है बल्कि किसी भी लोकतांत्रिक देश का स्याह पक्ष है जो मानवीय संवेदना को झकझोरती हुई हमसे सीधा संवाद करती है। चुटीले संवाद और कसा हुआ समकालीन कथानक लघुकथा की शिल्पगत विशिष्टताओं को पाठक के ज़ेहन में सुखद अनुभव देकर जाते हैं।
ReplyDeleteध्रुव जी का सार्थक एवं धारदार चिंतन लघुकथा को उद्देश्यपूर्ण बनाता है।
आदरणीय सर सादर प्रणाम 🙏
ReplyDeleteआज प्रथम बार आपकी कथा पढ़ कर भयभीत हूँ। यह जिस भयानक दृश्य को आपने शब्द दिए हैं वो यह दर्शाती है कि ना केवल मानव अपितु मानवता भी यही कहीं किसी संख्या का टैग लिए पड़ी होगी। सत्य तो यह है कि शासन प्रशासन के लिए यह आंकड़े मात्र आंकड़े होते हैं। आम जनमानस की पीड़ा समझ पाना इनके बस का नही। सराहना से परे आपके इस सृजन को कोटिशः नमन 🙏
सटीक।
ReplyDeleteलाजवाब व्यंग्य
ReplyDeleteतीखा सच।
ReplyDeleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (06 जून 2020) को 'पर्यावरण बचाइए, बचे रहेंगे आप' (चर्चा अंक 3724) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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रवीन्द्र सिंह यादव
लोकतंत्र का मुर्दा और मुर्दा कुछ यूं बोला कि ....वाह एकलव्य जी
ReplyDeleteलाजवाब व्यंग्य
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